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मुरादाबाद में हुए दंगे की फाइल फोटो
विस्तार
मुरादाबाद में 13 अगस्त 1980 को भड़के दंगे की चिंगारी नवंबर तक सुलगती रही थी। सरकार ने 13 अगस्त को हुए दंगे की जांच के लिए एक सदस्यीय आयोग का गठन तो किया, लेकिन नवंबर तक अंजाम दी गई घटनाओं की जांच के लिए आयोग की मांग को ठुकरा दिया। इस दौरान तमाम लोगों ने दंगे में हुए अपने नुकसान को लेकर दावा भी दाखिल किया, हालांकि ये विषय जांच में शामिल नहीं किए जाने उनको कोई राहत नहीं मिल सकी।
बता दें कि मुरादाबाद दंगे के पांच दिन बाद 18 अगस्त को राज्य सरकार ने तत्कालीन जिला एवं सत्र न्यायाधीश बीडी अग्रवाल को एक सदस्यीय जांच आयोग के रूप में नियुक्त किया था। हालांकि मुरादाबाद में नवंबर के पहले सप्ताह तक हिंसा की घटनाएं होती रहीं। इसके दृष्टिगत मुस्लिमों ने सरकार से अनुरोध करने का निर्णय लिया कि जांच की अवधि को नवंबर तक बढ़ाया जाए। इस संबंध में आयोग की ओर से बीडी अग्रवाल ने राज्य सरकार को पत्र भेजकर अनुरोध भी किया, जिसे खारिज कर दिया गया। इसके बाद जांच में न तो कोई प्रगति हुई और न ही कोई लिखित बयान दाखिल किया गया।
कुछ लोगों ने अपना नुकसान होने का दावा प्रस्तुत किया, लेकिन आयोग का इससे कोई संबंध नहीं था। तत्पश्चात 28 अप्रैल 1981 को राज्य सरकार ने बीडी अग्रवाल के स्थान पर इलाहाबाद हाईकोर्ट के न्यायमूर्ति एमपी सक्सेना के नेतृत्व में एक सदस्यीय आयोग बनाकर जांच के आदेश जारी कर दिए। इस आयोग को भी केवल 13 अगस्त के दंगे की जांच करने का जिम्मा सौंपा गया। जांच के दौरान मुरादाबाद में 13 अगस्त और उसके बाद तैनात रहे 17 अधिकारियों को नोटिस देकर बयान दर्ज किए गए। वहीं, मुस्लिम संगठन के 8 लोगों का लिखित बयान लिया गया, जिसमें मुस्लिम लीग का तत्कालीन प्रदेश अध्यक्ष डॉ. शमीम अहमद खां भी शामिल था। इसके अलावा हिंदू पक्ष के छह लोगों के बयान दर्ज हुए।
व्यापार में बढ़ते दखल से नाराज थे हिंदू
जांच में पाया गया कि पाकिस्तान से भारत आए हिंदू असम और पश्चिमी उप्र में बस गए थे। उन्होंने अपना परिचय अलग रखा और स्थानीय हिंदुओं को कपड़ा, किराना, निर्यात तथा परिवहन जैसे अनेक पेशों से वंचित कर दिया। इससे स्थानीय हिंदुओं में नाराजगी पैदा होने लगी। वहीं अगर राजनीतिक कारणों की बात करें तो 1980 में स्थानीय हिंदुओं को गहरा झटका तब लगा, जब पाकिस्तानी आप्रवासी हिंदू हंसराज चोपड़ा ने भाजपा का टिकट हासिल कर लिया। स्थानीय लोगों ने इसके विरोध में कांग्रेस प्रत्याशी हाफिज मोहम्मद सिद्दीकी को मई, 1980 में हुए मध्यावधि चुनाव में समर्थन देने का निर्णय लिया, जिससे हंसराज चोपड़ा को शिकस्त का सामना करना पड़ा। स्थानीय हिंदुओं का आक्रोश मतदान के दौरान टाउन हॉल में एक नारे के रूप में सामने आया, जिसमें कहा गया कि ”नया आसाम बनाएंगे, पंजाबियों को भगाएंगे”। इससे दंगा भड़क गया, जिसमें एक व्यक्ति मारा गया और नौ घायल हो गए। इसका शिकार अधिकतर मुसलमान हुए और हमलावरों के रूप में आप्रवासी हिंदू चिन्हित किए गए थे।
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